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सखी, लागै छै जाड़ / कुमार संभव
Kavita Kosh से
एैले मनहर शरद
सखी, लागै छै जाड़।
कनकन्नोॅ ई पूसोॅ के महिना
लागै छै ठारोॅ केॅ ठार,
सखी, लागै छै जाड़।
अजगुत शरद ई ज़िया जराबै
दिन के हँसाबै, रात भर कनाबै,
सीतोॅ के रितु ई ऐन्होॅ, काँपै लागलै हाड़
सखी, लागै छै जाड़।
रात अन्हरिया, सखी थरथर काँपौं
साँस भर चलै छै, रहि-रहि के हाँफौं,
केकरा दुख कहियै हम्में, पियवा हमरोॅ ड़ाड़
सखी, लागै छै जाड़।
हमरा मन में नै छै कोनोॅ, सच में राग विराग
अचल रहौं तोरो शरद, सजलोॅ रहौं सुहाग,
हमरो दिन फिरतै सखी, मिलतै प्रेम अपार
सखी, लागै छै जाड़।