सखी अब आनंद को रितु ऐहै।
बहु दिन ग्रीसम तप्यो सखी री सब तन-ताप नसैहै।
ऐ हैं री झुकि के बादर अरु चलिहैं सीतल पौन।
कोयलि कुहुकि कुहुकि बोलैंगीं बैठि कुंज के भौन।
बोलैंगे पपिहा पिउ-पिउ बन अरु बोलैंगे मोर।
’हरीचंद’ यह रितु छबि लखि कै मिलिहैं नंदकिसोर॥