भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सखी के संकोच गुरु सोच मृगलोचनि / देव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सखी के संकोच,गुरु सोच मृगलोचनि,
            परसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयो गात .
देव वै सुभाय मुसकाय उठि गए,यहाँ
            सिसकि सिसकि निसि खोई, रोय पायो प्रात.
को जानै, री बीर! बिनु बिरही बिरह विथा,
            हाय हाय करि पछताए न कछु सुहात.
बड़े बड़े नैनन सों आँसू भरि भरि ढरि,
            गोरो गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात.