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सखी के संकोच गुरु सोच मृगलोचनि / देव
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सखी के संकोच,गुरु सोच मृगलोचनि,
परसानी पिय सों जो उन नेकु हँसि छुयो गात .
देव वै सुभाय मुसकाय उठि गए,यहाँ
सिसकि सिसकि निसि खोई, रोय पायो प्रात.
को जानै, री बीर! बिनु बिरही बिरह विथा,
हाय हाय करि पछताए न कछु सुहात.
बड़े बड़े नैनन सों आँसू भरि भरि ढरि,
गोरो गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात.