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सखी बरखा / सरस दरबारी

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ग्रीष्म की भीषण गर्मी में जब मन क्लांत हो जाता है
जब तृषित धरती तुम्हारी प्रतीक्षा में पलक पावडे बिछाये बैठी रहती है
तब याद आ जाते हैं-
जीवन के विभिन्न पड़ावों पर-
तुम्हारे साथ बिताये वे पल
और भीग जाता है तन मन
याद आते हैं बचपन के वे दिन-
जब कागज़ की कश्तियों की रेस में-
तुम मुस्कुराकर आश्वस्त करतीं
घबराओ नहीं तुम्हारी कश्ती नहीं डूबने दूँगी
या वे शामें
जब घर से काफी दूर-
सहेली की छत पर
बौछारों की सुइयों से आँख मुँह भींचे
घंटों बाहें फेलाए भीगते रहते-
और पूरी तरह तर- बतर
डाँट के डर से फिंगर्स- क्रोस्ड
घर पहुँचते
पड़नी तो थी पर ज़रा कम पड़े
माँ डाँटती जातीं
और हम सर झुकाए
उन पलों को मन ही मन दोहराते
एक स्मितहास चेहरे पर उभर आती-
तभी मौके की नजाकत को भाँप-
एक अवसाद ओढ़ लेते चेहरे पर!
माँ भी जानती थी
कल फिर यही होगा
फिर समय बीता-
अहसास बदल गए-
मायने बदल गए-
पर रहीं तब भी तुम
मेरी अन्तरंग!
अब मेघों में "उनकी" सूरत दिखाई देती
कभी मेघों को कभी चाँद को अपना दूत बनाती
और "वे" मेरा सन्देश पा चले आते!
फिर समुन्दर के किनारे वह बारिश में भीगना-
ठण्ड में ठिठुरते काँपते चाय की चुस्कियाँ लेना-
ओपन एयर रेस्तरां में पनीर के गर्म पकौड़े-
और वह शोर!
समुन्दर का
हमारे अहसासों का
और उनके जाने के बाद हफ़्तों उस सूख चुकी साड़ी को निहारना-
और फिर भीग भीग जाना
तुमने तो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा-
मन जब भी दुख से कातर हुआ है-
तुम मेरे साथ बरसी हो
तन भीगता जाता
और तुम मेरे आँसुओं को धोती जातीं
तब लगता घुल कर बह जाऊँ तुम्हारे साथ
कुछ ऐसा ही आज भी लग रहा है