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सखी री! हिय में हरि-छवि अटकी / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
राग तोड़ी, तीन ताल 16.9.1974
सखी री! हिय में हरि-छवि अटकी।
कैसे हूँ निकसत नहिं सजनी! मैं बहु बारिक झटकी॥
बाँको मन बाँके मनमोहन, बाँकी अटकनि अटकी।
कैसे मिटै परी कागज पै छाप चीकने पट की<ref>पट्टे की, छापे की</ref>॥1॥
घर घर होत चवाव सखी! पै मैं अब नागर नट की।
पय-पानी सी मिली प्रीति यह विलग होय क्यों घट की॥2॥
हौं तो अब हरि के रस राती, भई साख जनु वट की।
प्रीति-भूमि में पैठन लागी, अब लौं तरु सों लटकी॥3॥
सबसों तोरि जुरी मोहन सांे, पहले कोउ न हटकी<ref>रोकी</ref>।
अब कोउ काज न लाज लोकसों, फूटी सिर की मटकी॥4॥
कुल-कलंकिनी कहै भलै कोउ, मैं भटकी सो भटकी।
मोहिं न कानि काह की सजनी! बात न यह घूँघट की॥5॥
शब्दार्थ
<references/>