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सखी री! हौं अवगुन की खान/ हनुमानप्रसाद पोद्दार
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सखी री! हौं अवगुन की खान।
तन गोरी, मन कारी, भारी पातक-पूरन प्रान॥
नहीं त्याग रंचकहू मन में, भर्यौ अमित अभिमान।
नहीं प्रेम कौ लेस, रहत नित निज सुख कौ ही ध्यान॥
जग के दुःख अभाव सतावैं, हो मन पीरा-भान।
तब तेहि दुख दृग स्रवै अश्रु-जल, नहिं कछु प्रेम निदान॥
तिन दुख-अँसुवन कौं दिखरावौं हौं सुचि प्रेम महान।
करौं कपट, हिय-भाव दुरावौं, रचौं स्वाँग सग्यान॥
भोरे मम प्रियतम विमुग्ध ह्वै करैं विमल गुन-गान।
अतिसै प्रेम सराहैं, मो कूँ परम प्रेमिका मान॥
तुमहू सब मिलि करौ प्रसंसा, तब हौं भरौं गुमान।
करौं अनेक छद्म तेहि छिन हौं, रचौं प्रपंच-बितान॥
स्याम सरल-चित ठगौं दिवस-निसि, हौं करि बिविध बिधान।
धिग जीवन मेरौ यह कलुषित, धिग यह मिथ्या मान॥