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सगवन के पात पर खिचड़ी / प्रेमशंकर शुक्ल
Kavita Kosh से
दहबोर कर -- पैर कर नहाना
मारते हुए मुँह से कुल्ला
फिर सगवन (सागौन) के पात पर खिचड़ी का भोग
और दोने में पानी
महुए की छाँव में
नींद को दोपहर का सुख देना
मेरे चरवाहा-मन को
पहाड़ी नदी कितनी सांस्कृतिक लगती है !
पूर्वजों ने पानी से ही बोलना सीखा होगा
और भरा होगा कण्ठ में
गीत-संगीत !