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सगुनपाखी जा बसे / नईम
Kavita Kosh से
सगुनपाखी जा बसे परदेश,
अब जो रह गए स्वर शेष
वो हैं चिरइ-चुनगुन के!
हंस या कि कपोत को
अब कौन पाले, कौन पोसे?
यक्ष-मन से उठ गए
अब मेघदूतों के भरोसे;
झर गए कचनार, टेसू मीन
रह गए दो-चार दिन ही शेष
वो हैं बंधु फागुन के।
कोंपलों-सी कांक्षाएँ
सिर उठाए टहनियों पर
बोझ माथे का टिका है
इन असुंदर कुहनियों पर,
माँ पिता-सी बरगदों की छाँव
लेकिन धूप मारे है तमाचे
सख्त गिन-गिन के।
घोंसले खाली पड़े
इन चैतुओं, उन बयाओं के
देवता मारे हुए हैं
धुर अपाहिज दयाओं के।
दूर के उन मंदिरों से आज
आ रहे जो खोखले ये
कनसुरे सुर रामधुन के।
सगुन पाखी जा बसे परदेश,
अब जो रह गए स्वर शेष
वो हैं चिरइ-चुनगुन के!