सच कहता हूँ / रमेश नीलकमल
जब मैं बच्चा था
मुझे नहीं फहराने दिया गया तिरंगा
नहीं गाने दिया गया जनगणमन
नहीं चुराने दी गईं जलेबियां
जिनको मैंने चुराया था एक साल
और खाई थी भरपेट मार
जलेबियां तो फिर भी छूट गईं थीं
जब मैं युवा हुआ
मुझे नहीं डालने दिया गया वोट
नहीं लगाने दिए गए नारे
किसी प्रत्याशी के पक्ष में
या खिलाफ
और बन्द कर दी गयीं
मतपेटियां लूट न लूं
इस डर से
या शायद यह सोचकर कि
चुप रहने वाले बड़े खतरनाक होते हैं
जब हुआ मैं प्रौढ़
देश का अर्थ बदल दिया गया
धर्म का अर्थ बदल दिया गया
कि फूल, हवा, धरती और आदमी
बना दिए गए पर्याय
मधुमक्खी के छत्ते का
जिनसे शहद पाना
भले आदमी के लिए दुष्कर था
जब आया वार्धक्य
मेरा मिटने लगा था अस्तित्व
मैं पहाड़ होना चाहता था
नहीं हुआ
औ बेटों ने भेज दिया मुझे पहाड़
कि पहाड़ न हुए न सही
देख लें खुली आंखों पहाड़
जहां से रोज-रोज फिसलता आदमी
कहीं का नहीं रहता।
सच कहता हूँ, श्रीमान्
कि इस कृतध्न दुनिया में
करने के लिए बहुत कुछ था
मेरे लिए
पर मुझे करने नहीं दिया गया
फिर ‘कुछ नहीं करने’ के जुर्म में
मढ़ा गया मुझपर दोष
और सिल दिया गया मेरा मुंह
कि कुछ बोल न सकूं मुंह खोल न सकूँ
तब आप ही बताइए
श्रीमान् जी
कि ढोल या नगाड़े का
क्या होता है हश्र
यदि
उसे बजाया न जाए।