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सच कहता हूं मेरी तकलीफ़ यही है / सांवर दइया

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सच कहता हूं मेरी तकलीफ़ यही है।
जिस वजह से आज मैंने ग़ज़ल कही है।

वहां तो लग रहे हैं शौक़िया निशाने,
यहां क़दम-क़दम पर सांस सिहर रही है।

आदिम सुविधाओं के नक्शे फैल रहे हैं,
तिल-तिल कर बटोरी आग बिखर रही है।

हवा तक का रूख बदलने वाली ताक़त,
नीले रंग में सकून तलाश रही है।
   
जिन सूखे होठों के लिए की तपस्या,
वहां पहुंचे बिना ही गंगा मुड रही है।