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सच का अपराध / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
यादें अपराधी हैं
सच कहती हैं न
यादों के कोष खोले जाएँगे
मूंदकर पलकों को
टहलती थीं जो रात भर
उस रात के किस्से
सच-सच बयान किये जाएँगे
हर वेदना हर ठोकर
अपनी चोट का हिसाब मांगेगी
घोंट दी गई आवाजें
लावे-सी उबल आने को
आतुर दिखेंगी
तब हुक्मरानों के आदेश पर
यादों को सरेआम
बेनकाब किया जाएगा
ढकेल दिया जाएगा
अँधेरे कठघरे में
काफिर होने का
तमगा चिपका कर
खुद की परिभाषा बदलते देख
सोच में है कठघरा