भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सच का लम्हा जब भी नाज़िल होता है / शाहीन
Kavita Kosh से
सच का लम्हा जब भी नाज़िल होता है
कितनी उलझन में अपना दिल होता है
मेरी ख़ुशी का भेद है बस ये सब का दुख
मेरे अपने दुख में शामिल होता है
इल्म की मेरे यार सनद पहचान नहीं
बहुत पढ़ा लिक्खा भी जाहिल होता है
सय्यद-ज़ादे दिल माँगो या दाद-ए-हुनर
साइल तो हर हाल में साइल होता है
बीत गई जब उम्र तो ये मालूम हुआ
एक इशारा उम्र का हासिल होता है
एक हँसी लाचारी को कुछ और बढ़ाए
एक हँसी से दुश्मन घाइल होता है
ऐ मिरे दिल ऐ अच्छे दिल ऐ ख़ाना-ख़राब
तू क्यूँ हर तकरार में शामिल होता है
सह लें हम दुनिया के सितम ‘शाहीन’ मगर
ज़िद्दी दिल हर आन मुक़ाबिल होता है