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सच बताओ किधर से है मारी ग़ज़ल / अशोक अंजुम
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सच बताओ किधर से है मारी ग़ज़ल
है तुम्हारी नहीं ये तुम्हारी ग़ज़ल
कुछ इधर से लिया कुछ उधर से लिया
यौं बना दी है तुमने भिखारी ग़ज़ल
शे'र के साथ कातिल अदाएं भी हैं
बज़्म में आ गई हैं शिकारी ग़ज़ल
मौसियां मंच पर तुझको गाती फिरें
तेरे पापा कहां हैं, बता री ग़ज़ल
उसमें मेरा नहीं कुछ भी बाक़ी रहा
एक उस्ताद ने यूं सुधारी ग़ज़ल
बेवफ़ा दिलरुबा की तरह-से लगे
डायरी में ये तुम्हारी, हमारी ग़ज़ल
एक शायर मरा शे'र कहते हुए
काटती फिर रही है फरारी ग़ज़ल
कुछ नयापन न था ख़ासियत कुछ न थी
भीड़ में खो गई लो बेचारी ग़ज़ल
एक अरसे तलक खोपड़ी सुन्न थी
सर पे आकर गिरी इतनी भारी ग़ज़ल