सच बताओ जी रहे हैं या ... / अंशुल आराध्यम
हम दया के दीप दिल के द्वार पर धर भी न पाए
पर मनुज होने का दावा कर रहे हैं
सच बताओ जी रहे हैं या दिखावा कर रहे हैं
टाँक ली हैं पैरहन पर सूर्य की किरणें भले ही
मन मगर ऐसे उजालों से अपरिचित ही रहा है
चेतना फिर भी सरलता से सुवासित हो न पाई
उम्रभर जबकी समूचा तन सुगन्धित ही रहा है
धर्म में डूबे, हृदय में मर्म तक भर भी न पाए
किस कदर ख़ुद से छलावा कर रहे हैं
सच बताओ जी रहे हैं या दिखावा कर रहे हैं
हम अकिंचन हैं मगर किंचित न पहचाना स्वयं को
स्वार्थ ओढ़ा इसलिए परमार्थ तक पहुँचे नहीं हैं
सोचिए ! क्या ज्ञान हमको पथ दिखाएगा कि हमने
रट लिए, बस, वाक्य, पर भावार्थ तक पहुँचे नहीं हैं
प्रार्थना, हित में किसी के, हम कभी कर भी न पाए
बस, जनेऊ और कलावा कर रहे हैं
सच बताओ, जी रहे हैं या दिखावा कर रहे हैं