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सच बताना / प्रभात पटेल पथिक

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विरह के इक माह में ही याद फिर आने लगे हैं,
सच बताना, क्या हृदय के द्वार तक हम आ गए थे?

कह रहे थे हम तो कब से, प्रेम में हैं आप मेरे-
आप लेकिन थीं कि प्रतिपल मुकरती ही जा रही थीं।
मान भी लें आपकी ये बात यदि तो भला कहिए-
प्रतिदिवस किसके लिए अतिशय सँवरती जा रही थीं?
याद हम आ ही गए है तो सुनो इतना बता दो-
प्रेम में क्या आपको इतना अधिक हम भा गए थे?
विरह के ।

सांसारिक बन्धनों से प्रेम को कर मुक्त पाना-
और इस व्युत्क्रम-जगत में प्रणय को यों निभा लेना।
किंतु यह सम्भव नहीं अब तक हुआ जग में प्रणयिके!
प्रेम का होना भी अनहद और प्रिय से छिपा लेना!
प्रेम में थीं आप यदि तो, इसका उत्तर हाँ में देना-
घन-सघन यादों के क्या, तन-मन-नयन में छा गए थे?
विरह के ।

ये नयन सोए नहीं कितने दिनों से हैं बता दो-
रात दिन ये खोजी बनकर राह किसकी ताकते हैं!
उलझी अलकों से कभी पूछा है-क्यों इस हाल में हैं-
तन-बदन-बिस्तर के ये उलझे वसन, क्या चाहते हैं!
आप ही बोलो अभी कुछ शेष है क्या मध्य द्वय के?
फिर कहो, प्यासे 'पथिक' की, राह क्यों भरमा गए थे?
विरह के ।