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सच बोले कौन? कोई भी अब मिल नहीं रहा / फ़रीद क़मर
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सच बोले कौन? कोई भी अब मिल नहीं रहा
कोई दिया हवा के मुक़ाबिल नहीं रहा
इक तेरे ग़म का बोझ उठाया था दिल ने बस
फिर कोई ग़म ज़माने का मुश्किल नहीं रहा
तुझसे भी दिलफरेब थे दुनिया के ग़म मगर
मैं तेरी याद से कभी ग़ाफ़िल नहीं रहा
तेरे बग़ैर जैसे ये गुज़री है ज़िन्दगी
जीना तो इस क़दर कभी मुश्किल नहीं रहा
वो कौन सी नमाज़ जो तेरे लिए न थी
तू मेरी किन दुआओं में शामिल नहीं रहा
सब तेरी इक निगाह के मक़तूल हो गए
अब सारे शहर में कोई क़ातिल नहीं रहा