भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सजन मुझ पर बहुत ना-मेहरबाँ है / फ़ाएज़ देहलवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सजन मुझ पर बहुत ना-मेहरबाँ है
कहाँ वो आशिक़ाँ का क़दर-दाँ है

कहूँ अहवाल दिल का उस को क्यूँकर
बहुत नाज़ुक-मिज़ाज ओ बद-ज़बाँ है

मिरा दिल बंद है उस नाज़नीं पर
अजब उस ख़ुश-लिक़ा में एक आँ है

भवाँ शमशीर हैं ओ ज़ुल्फ़ फाँसी
हर इक पलक उस की मानिंद-ए-सिनाँ है

ख़ुदा उस को रक्खे दुनिया में महफ़ूज़
निहाल-ए-आरजू आराम-ए-जाँ है

चंद्र बे-वक्र है उस बद्र आगे
सफ़ा उस मुख की हर इक पर अयाँ है

समझता है तिरे अशआर ‘फ़ाएज़’
ख़ुदा के फ़ज़्ल सूँ वो नुक्ता-दाँ है