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सजावट की वस्तु / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
जहाँ तहाँ रख दी जाती है
चिपका दी जाती है
विज्ञापन की औरत की तरह
कभी फ्रेम के भीतर
कभी बाहर
कभी दीवार पर
कभी द्वार पर।
वस्तु है
इसलिए नहीं कोई अपना अस्तित्व
टूटना है नापसन्द पर।
मजबूरी है
बेबसी है सजावट की वस्तु होना।
सजावट की वस्तु होना
दूसरों के लिये मरना भी है
कोई समझे
न समझे।