सजीवन भाई / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
भाई सजीवन
बहुत अंतर नहीं है
जो तुम हो हम भी वही हैं
तुम संस्कृति सम्पन्न गाँव में हो
संघर्ष कर रहे हो जीने के लिए अनवरत
एक-एक पैसे की खातिर दिन भर टहल रहे
सर पर झौवा, पलरी लेकर सब्जी-सब्जी चिल्लाते हुए
हम सभ्यता संपन्न शहर में हैं
संघर्ष कर रहे हैं बने रहने के लिए अनवरत
एक-एक पैसे के लिए एक-एक अपमान का घूँट पीते
चल रहे हैं मन-मस्तिष्क पर बेगारी का तमगा लटकाए हुए
परिवार साथ है तुम्हारा
तुम नहीं रह पा रहे हो उनके साथ
सब्जी और खेती की रखवाली में चिंतित तुम
भरी दोपहरी में घर-घर पहुँच रहे हो जैसे अनाथ
परिवार साथ है हमारा
हम नहीं रह पा रहे हैं उनेक साथ
सुबह का निकला शाम तक पैसे की खोज में
पहुँच रहा हूँ रात गए मुंह लटकाए और ठंनकाए माथ
तुम उधर दुखी हो
लोग नहीं पूछते सजीवन भाई कैसे हो
हम इधर दुखी हैं
लोग नहीं देखते हम कैसे जी रहे हैं
हमारी नजर में तुम सुखी हो
गाँव में हो स्वच्छ वातावरण में
तुम्हारी नजर में हम सुखी हैं
शहर में हैं स्वच्छ पर्यावरण में
सजीवन भाई !
न तो हम सुखी हैं न ही तुम सुखी हो
कोई भी सुखी नहीं है हम दोनों में से
जो तुम हो हम भी वही हैं I