इक छाया अपनी जो, महालोक में उतर रही है ।
ढलती रात कालिमा, सजी चंद्रिका मुखर रही है ।
ये अमावस अँधेरे, भी लगे उज्जवल सदैव ही,
श्वाँस तेरे स्नेह से,ज्योति साधना निखर रही है ।
किरण बिखेरे जब रवि,करके नमन मैं चल पड़ी,
रही शब्द मुक्ता चुन, सुवर्णमाला सँवर रही है ।
तार हृदय के छू कर, मुक्त व्यथा कर तन-मन लेती,
बात कही कुछ अनकही, अधरों पर आ; ठहर रही है ।
साहित्य सित धार में, है खिलती रही यह पंकजा,
सुपथ जिजीविषा सहित,निज भाव व्यंजित कर रही है ।
हैं आज कल हों न हों, आ समेट लूँ हर पल को अब,
रहे जीवंत सदा लेखनी,यादें मधुरिम उभर रही है ।