भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सज रैया है कैक्टस / किशोर कुमार निर्वाण
Kavita Kosh से
थे मत ढूंढो इब फूलां नैं
स्यात ई मिलै थांनंै वै
खायगी वां नंै झाड़क्यां
ऊगता जावै इब तो
फगत कांटा।
माळी सारू ई इब
बागां रो माहतम रैयग्यो
फगत मोटी कमाई रै
लालच सारू
जकी वीं नंै मिलै
फूलां री सजावट सूं
घरां मांय लोग
सजाया करता फूल
गुलदस्तै मांय
इब सजावै कैक्टस
ज्यां रै लागतां ई हाथ
हुवै पीड़ सागीड़ी।