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सड़कों पर / बुद्धिनाथ मिश्र

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लहँगा चुनरी फिरन दुपट्टा
लाचा-चोली सड़कों पर
बित्ता-बित्ता सरक-सरक कर
आई खोली सड़कों पर ।

खुली-खुली राहें थीं, जिन पर
मिलते थे हम गले कभी
अब तो कर्फ़्यू है, दंगे हैं
मिलती गोली, सड़कों पर ।

काश कि ऐसा भी दिन आए
धुन्ध कटे चौबारे की
हरसिंगार के फूल बिखेरे
अक्षत-रोली सड़कों पर ।

इसने किया इशारा, उसने
दिया जवाब इशारे में
जो कुछ होनी थी बाग़ों में
वो सब हो ली सड़कों पर ।

क़दम-क़दम पर विज्ञापन हैं
क़दम-क़दम पर गड्ढे हैं
बचके रहना, देखके चलना
ऐ हमजोली, सड़कों पर ।

‘बुरी नज़रवाले तेरा मुँह
काला’ कहकर भाग गई
याद रही बस ट्रकवालों की
आँखमिचौली सड़कों पर ।

दीनाभद्री, आल्ह, चनैनी
बिहुला, लोरिक भूत हुए
नये प्रेत के सौ-सौ चैनल
बोलें बोली सड़कों पर ।

ज़रा-ज़रा सी भूलों पर ही
कितने ‘नाथ’ अनाथ हुए
भूल गए बस आते-आते
घर की बोली सड़कों पर ।