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सड़क की छाती पर चिपकी ज़िन्दगी २ / शैलजा पाठक

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हम मानते हैं
तुम मिले हों एक बंजर
धरती पर ƒघने छांव से

कुछ पल तुम्हारे पास
रुकी तो लगा अंकुर पनपता है
पत्थरों पर भी
होती है उनमें भी जीने की चाह
स्पर्श की बूंदें
रोपती हैं बीज उनमें

और फूटती है ज़िन्दगी
पत्थरों के ओर-छोर से।