सड़क पर / भूपिन्दर बराड़
सफ़ेद चादर से ढका था उसका मुंह
दौड़ते हुए वाहनों की तेज़ रौशनी में
चादर चमक उठती थी हर दूसरे पल
फिर अंधियारे में डूब जाती थी
बहुत शोर था सड़क पर
सर्दियों की शीत हवा थी
बदन तो चीरती हुई
बहुत से पैदल चलते लोग
ठिठक कर रुक गए थे सड़क के किनारे
जैसे रुकने के लिए हों मजबूर
उनके चेहरों पर अजब से भाव थे
लज्जा और लाचारी से मिलकर बने
वे चुप थे
और किसी से पूछ भी नहीं रहे थे
कि कौन था जो पड़ा था इस तरह
सड़क के बीचोंबीच
उन्ही के साथ खड़े
आपको लगता है सब कुछ है असंभव और बेकार
वो जो घेरे रहता है आपको जीवन बनकर
और छोड़ देता है किसी भी पल बिना हुज्जत के
सब कुछ बेकार है ये सड़क ये हवा ये रुक गया पल
फिर झटके से आपका फ़ोन बज उठता है
आप उसे कान से लगाते हैं झट से
जैसे उसी में हो आपके बचने का अंतिम उपाय
बोलो, कहते हैं आप, और सुनते हैं
दूसरी ओर से आती एक क्षीण सी आवाज़:
मैं नहीं दे पाया आज भी इस्तीफ़ा
बहुत डर लगने लगा था आखिरी वक्त
बहुत बुजदिल हूँ मैं
अपने दोस्त को समझाते हुए
कि ऐसा होना स्वाभाविक है एक दम
ठीक ही किया उसने, वह दोष न दे अपने आपको
आप निकल आते सड़क किनारे जमा उस भीड़ से
अचानक बहुत थकान महसूस होती है
अभी एक घंटा और लगेगा घर पहुँचने में
घर पर बीवी बैठी होगी टीवी के सामने
और बच्ची तो सो भी गयी होगी ऊंघते-ऊंघते