सड़क / कुमार विकल
तो अपने-आपको उसी परिचित सड़क पर खड़ा पाया
जिसके दोनों ओर—
पापलर के पेड़ों की कतारें थीं
एक छोर पर ‘नियोन’ बत्तियों से चमकती इमारत थी
जिसके एक कमरे में बैठे वे शराब पी रहे थे
और मेरी कविताओं की ज़िन्दगी जी रहे थे।
मैं जानता था—
वे ‘रम’ के तीन पेग ले चुके होंगे
और अब—
राजनीतिक बन्दियों की चर्चा से द्रवित हो
भारती तरफ़दारों* को बचाने की योजना बना रहे होंगे
साथ में फ़ैज़ की ग़ज़लें गुनगुना रहे होंगे।
मैं जानता था—
रम के पाँचवे पेग के बाद
भारती त्तरफ़दार का बीमार चेहरा
किसी गुदाज़—जिस्म औरत के चेहरे में बदल जाएगा
और उस कमरे का हर आदमी
उस जिस्म का क़िस्सा—दर—क़िस्सा दोहराएगा।
सड़क के दूसरे छोर पर
भारती तरफ़दार के चेहरे-सी बुझी हुई एक बस्ती थी
जिधर से हर सुबह
कुछ मद्रासी बच्चे
भिखमंगी के लिए आते थे
और अपने अधजगे चेहरों पर
ख़ौफ़नाक ख़बरें लाते थे
मसलन, बस्ती ज़िले के रामधन पर
कर्ज़ इतना चढ़ गया था
कि सूद मूलधन से दस दुना बढ़ गया था
और वह सूदख़ोरों के गुंडों से इतना डर गया था
कि कल रात शीत-लहर के बावजूद घर नहीं लौटा।
वैसे इस बस्ती में घर लौटना कोई ज़रूरी नहीं
सिर्फ़ बच्चे—
दिन भर की भिखमंगी के बाद
माँ—बाप की पिटाई के डर के बावजूद
घरों को इसलिए लौट जाते हैं
कि पापलर के पेड़ों के लम्बे साये
उन्हें जिन्न—भूतों की तरह डराते हैं।
मैं—
इन्हीं भुतैले सायों में चलता हुआ
एक जगमगाती इमारत के आकर्षण से
मुक्त होने की लड़ाई लड़ रहा था
और धीरे—धीरे
उस छोर की ओर बढ़ रहा था जहाँ मेरी कविता
और भारती तरफ़दार का चेहरा
गाली नहीं बनते।
...मेरे पीछे जगमगाती हुई बत्तियाँ थीं
और सामने कुछ टिमटिमाती हुई लालटेनें
लालटेनों की रौशनी के तले गहरा अंधेरा
एक ऐसा अंधेरा—
जिससे भागकर मैं सड़क पर आया था
और एक जगमगाती इमारत के सामने खड़ा हो कर चिल्लाया था
‘मुझे रोशनी की ज़रूरत है।’
इमारत से कई आवाज़ें एक साथ आईं
‘अंदर आ जाओ
यहाँ बहुत रोशनी है
तुम हमें कविताएँ दो
हम तुमें रोशनी देंगे.’
मेरे पास बहुत—सी कविताएँ थीं
उनके पास बहुत—सी सुविधाएँ थीं
मैं रम को रोशनी समझकर पीता था
और उस कमरे का हर आदमी
रम के तीसरे पैग तक
मेरी कविताओं के अंधेरे को जीता था
लेकिन रम का पाँचवाँ पेग…
मैं रम के पाँचवें पेग से बहुत डरता था
जब मेरी आँखों का अंधेरा
मेरी रीढ़ की हड्डी में ठिठुरने लगता था।
...जगमगाती बत्तियाँ बहुत पीछे रह गई हैं
मैं एक टिमटिमाती लालटेन के सामने आ खड़ा हो गया हूँ
और अपनी रीढ़ की हड्डी में
हरारत महसूस कर रहा हूँ।
भारती तरफ़दार= १९७५ में बहरामपुर की सेंट्रल जेल में कारावास भुगत रही एक क्रान्तिकारी महिला, जिसकी बीमारी की ख़बरें उन दिनों पत्र—पत्रिकाओं में छपी थीं।