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सतत अपने तरल कोर के संस्पर्शों से / केदारनाथ अग्रवाल
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सतत अपने तरल कोर के संस्पर्शों से
काट रही है दृढ़ कगार को जल की धारा ।
साँसे लेता हुआ समीरण प्रश्वासों से
तोड़ रहा है कण-कण का संसर्ग सहारा ।
फूले खेतों से फिर भी फूली है छाती,
सरसों को उसने, सरसों ने उसे सँवारा ।
देख रहा हूँ उसे देख कर मैं अपने को,
भूल रहा हूँ अन्त काल का मैं अंधियारा ।