भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सतयुग त्रेता द्वापर से, कलियुग का पहरा खोटा / हरीकेश पटवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सतयुग त्रेता द्वापर से, कलियुग का पहरा खोटा,
चार वर्ण एकसार होए, कोई बड़ा रह्या ना छोटा || टेक ||

सतयुग मै हमारी विप्र कौम, केहरी ज्यूँ कुक्या करती,
त्रेता में जो बात कही, कोन्या उक्या करती,
द्वापर मै इनकी धोती, अम्बर में सुक्या करती,
कलयुग में ऐसे कर्म करे, जिन्हे दुनिया थूक्या करती,
करै भेष जनाना, अब नाचण का मारै जोट्टा ||

सतयुग में क्षत्री बच्चे थे, मरदाने करतूती,
त्रेता में गऊ विप्र रक्षक, महक गई राजपूती,
द्वापर में सिंह मारया करते, ऐसी थी मजबूती,
कलियुग के राजपूत इसे, जिनसे नही मरती कुती,
ठा ले साफा धोती जुती, बेला थाली लोटा ||

सतयुग में धर्मार्थ सेठ, भण्डारे खोलण लागे,
त्रेता में पुनः दान के तप से, निर्भय डोलण लागे,
द्वापर में सब झूठ तजी, बिल्कुल सच बोलण लागे,
कलयुग में सब साहूकार झुठ बोलै, कम तोलण लागे,
दमड़ी पर सो-सो नेम करै, सबका गया लिकड़ लँगोटा ||

सतयुग में खाते शुद्र, मेहनत से उदर भरकै,
त्रेता में गुजारा करै थे, खिदमतदारी करकै,
द्वापर में तीनों वर्णों से, रहया करै थे डरकै,
कलयुग में शूद्रों का झंडा, सबसे ऊंचा फरकै,
हरिकेश से नही खुलै, ये बंध गया भरम भरोटा ||