सतरह / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
किसी ने किसी की सुनी है कभी
जो हमारी भी कोई सुनेगा
रात नदियों की धारा को टोका था मैं
पाँव पड़-पड़ बहुत उसको रोका था मैं
और बोला की क्षण भर सुनो तो सही
बात मेरे भी मानों गुणो तो सही
वह विहँसती नयन मोड़ती बढ़ गई
किए अनसुनी ज्यों सुना ही नहीं
किसी ने किसी का गुना है कभी
जो हमारा भी गुनेगा
सुबह सूर्य की रश्मियों से कहा
स्वर्ण गंगा से जो आ रही थी नहा-
तुम मुझे लग रही हो बहुत ही भली
सच जहाँ में बिछा कर कनक की कली
तुम न जाना कभी वे मगर अनकहे
अनमिले मुझसे ही शाम को जा ढली
जहाँ में किसी का बना है कोई
जो हमारा भी कोई बनेगा
रात देखा तो अम्बर के तारे सभी
गोड़ से गिर रहे चूमने को मही
टूटते दिल के टूकड़े को नभ देखकर
कुछ कहा था नहीं, हाँ उसे रोक कर
हमारी तरह उसकी ख़्वाहिश नहीं थी
किसी एक को पूजते जिंदगी भर
जहाँ में किसी का रहा है कोई
जो हमारा भी कोई रहेगा
हमारी तरह एक सागर मिला
याद में वह हमीं-सा रहा तिलमिला
ज्वार उठता रहा हर समय सिंधु में
दिल तड़पता रहा कट बहुत बूँद में
सिंधु-सा मैं तड़पता रहा उम्र भर
क्या क्या रहा झाँकता इन्दु में
मेरी बगिया के पथझड़ पर तुम न हँसो
कल फूलों का गुच्छा खिलेगा
किसी ने किसी की सुनी है कभी
जो हमारी भी कोई सुनेगा