सतरें कुछ बिखरी बिखरी सी / अशोक कुमार पाण्डेय
(एक)
उतनी अँधेरी नहीं यह रात
जितनी तुम्हारी आँखें
उतना अकेला नहीं है यह चाँद
जितनी तुम्हारी आवाज़
मैं अपनी किताबों में मुंह छुपाये
अभिनय कर रहा हूँ सुनने का
उतना खरा नहीं कोई शब्द
जितनी तुम्हारी खामोशी
(दो)
"कुछ वाक्य जो मिलकर कुछ नहीं बन पाए”
महज
शब्द था एक
महज एक शब्द था
कभी कहा अक्सर अनकहा
एक शब्द था रात जितना लंबा
एक शब्द था समुद्र जितना गहरा
एक शब्द था तुम्हारी उदासी जितना उदात्त
महज एक शब्द था तुम्हारे अस्तित्व को लीलता
मैं उस शब्द की क़ीमत पर नहीं पाना चाहता था तुम्हें
तुम उस शब्द के लिए सारी क़ायनात छोड़कर चली आई थी
(तीन)
इस तरह ख़त्म हुआ एक जीवन
इस तरह ख़त्म हुआ मृत्युभय
इस तरह जीवन का राग हुआ ख़त्म और देह भष्म हुई गंधहीन
इस तरह मैं वापस लौटा उस नगर से जहाँ तक नहीं जाती कोई राह
तुम जहाँ रहती हो अपने जागते स्वप्नों के साथ वहाँ नहीं जाती कोई राह
राह...राहत...कुछ नहीं
और इस तरह ख़त्म हुई वह कथा अकथ
(चार)
तुम कहानी लिखना चाहती थी एक
मैं सिर्फ कविता लिख सकता था
सफ़ेद बालों सा उभर आता था तुम्हारा दुःख
मैं उस पर शब्दों का नीला लेप लगा देता था
रात भर में उतर जाते रंग और उभर आती सफ़ेदी और गहरी
मुझे कितना भरोसा था शब्दों पर और तुम्हें दुःख पर
था लिखना मुश्किल है कितना
है लिखना कितना दुश्वार
(पांच)
सारी गिरहें कब खुलती हैं?
बहुत दिनों तक सीने पर पत्थर रखो तो
बिन पत्थर के साँसे लेना मुश्किल हो जाता है
मरुथल में रहने वालों को सागर तट पर भय लगता है