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सती / अर्जुन देव चारण

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एक बार प्रजापति दक्ष ने अपने यहां एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में सभी देवताओं, महर्षियों और देव-ऋषियों को बुलाया पर भगवान शिव को नहीं बुलाया। भगवान शिव की पत्नी को यह बात अखरी। उसने अपने पति भगवान शिव से पिता के घर जाने हेतु अज्ञा मांगी। भगवान शिव ने सती को समझाया कि हमें बिना बुलाए वहां नहीं जाना चाहिए, पर सती अपने पिता के उस यज्ञ में जाने का निश्चय कर चुकी थी। पति के मना करने के बाद भी जब सती यज्ञ-स्थल पर पहुंची तो उसने वहां देखा कि सभी देवताओं के भाग रखे हुए हैं परंतु भगबान शिव का भाग नहीं है। सती के पिता प्रजापति दक्ष ने सती का अनादर किया और उसको बिना बुलाए आने का उपालंभ दिया। पिता द्वारा अपने पति के अपमान को देख दक्षपुत्री ने अपना शरीर वहीं नष्ट कर दिया। पिता द्वार पुत्री के अपमान और पत्नी द्बारा पति के मना करने पर भी पीहर जाने की उसी घटना को शब्द देती है यह कविता।

पहाड़ की पुत्री को
पत्थर ही होना था
फिर मैं
नदी जैसे क्यूं पिघली दाता !

मेरा यह पिघलना
फैलाव है
एक अग्नि का
आप उसे
बांधना चाहते थे यज्ञ कुंड में।

जब-जब कोई चीज बंधती है
वह हो जाती है पत्थर
फिर भले वह रेत हो
पानी हो
या आदमी।

ऐसे बंधनों में
क्यों बंधता है कोई जीव
जो संपूर्ण जाति को
निर्बल कर जाता है।

आपके आमंत्रित
बैठे हैं सभी देव
पर क्यों नहीं है आसन
मेरे नाथ का?
जहां नहीं सम्माननीय
पुत्री का पति
अधूरी है वहां सारी पूजा।
अधूरा है यह यज्ञ आपका
अधूरे हैं सभी मंत्र
अधूरी है दी गई आहूतियां
अधूरे हैं निमंत्रण पर आए सभी देव-गण
क्योंकि
अधूरी खड़ी है
आपके घर की लाडली।

आपकी आंखों को नजर आती हैं
केवल चमकती चीजें
आपके कान सुनते हैं
झूठे गुणगान करते होठों की आवाजें
आपको ओम्‍ का पावन जप
कैसे सुनाई देता।

आप आकारों के बंधनों से बंधे
विस्तृत करना चाहते हैं सीमा
अपने राज्य की
आपको अनंत-निराकार-अयाची का स्वरूप
कैसे दिखाई देता।

हाथी की सवारी बैठने वाला
नंदी का नाप कैसे परखे?

मां-बाप का घर तो
ओढ़ाता है तारों जड़ी चूंनड़ी
किंतु आज
इस आंगन ने
दग्ध हुआ मेरा कलेजा।
घिन्न आती है
मुझे मेरी देह से
इसके एक एक अंश में
दिपदिपाता है आपका चेहरा
मेरे रोम-रोम के सृजनहारे हैं आप
शायद इसी लिए
मैंने भी कर लिया घमंड
नहीं मानी उस भोले की बात
“पिता के घर से
बुलाबे का क्यों इंतजार”
हंसा था सुनकर
जानने वाला सातों भवों के भेद।
शायद वह बनाए रखना चाहता था
मेरे पिता का मान
मैं मूर्ख समझी क्यों नहीं
उसके पहले ‘नहीं’ को
उसने कभी नहीं टोका मुझको
उसने कभी नहीं रोका मुझको
पर आज पहली बार
मुझे मना करने लिए हिले थे
वे मंथर होंठ
मैंने क्यों नहीं रखा
उन होठों का मान

यहां पहुंचने पर प्रकट हुआ
सारा भेद
मेरे रवाना होते
उन्होंने क्यों देखा मुझे ऐसे
जैसे देख रहो हो
अंतिम बार
मेरे हाथ से
छूटता उनका हाथ
क्यों रुका था पल भर
मेरे अंगुलियों को सहलाते
उनके गले की सोभा बना भुजंग
मेरे पल्लू
गांठ बांध
क्यों बैठ गया था
उनकी गोद में
मैंने क्यों नहीं देखा
वे सहलाते रहे
उस भुजंग को
और उसी बहाने
मन ही मन
करते रहे बात
मेरे चीर से
मैंने क्यों नहीं देखा
कि पिता के घर पहुंचने को उतावले
मेरे पैर
अपना घर छोड़ने से पहले
क्यों कांप गए थे
क्यों रास्ता रोक
खड़ा हो गया नंदी
घर के दरवाजे पर
अपने पांव पटकने लगा
मेरे पीठ फेरते ही
मैंने क्यों नहीं देखा
पिता के घर पहुंचने की जल्दी ने
मुझे मेरे घर से
युगों-युगों
दूर कर दिया

अपनों और परायों का भेद
यह आंगन
मुझे ऐसे समझाएगा
यह तो मैंने
सपने में भी नहीं सोचा था

मुझे याद रखना था
कि आप तो कर चुके थे
मेरा दान
फिर आज
अन-आमंत्रित, बिना बुलाए
कौनसा मुंह लेकर आई यहां
मेरे सिर पर
हाथ फेरते-फेरते
आपने क्यों मोड़ लिया था
अपना मुंह
मुझे याद रखना था

याद रखना था मुझे
कि बेटी को विदा करने के बाद
गरीबों की झोंपड़ियां
आंसू बहाती होंगी
उनकी याद में
किंतु
राज-महलों के कठोर कपाट
काठ से बने
अधिक कठोर हो जाते हैं
याद रखना था मुझे
कि इन गढ़ों में
इतने दरवाजे
केवल बेटी को
बाहर रोकने के खातिर ही
बनाए जाते हैं

इतने बड़े-बड़े भूपालों की भीड़ में
एक बेटी
आज अपने ही घर में
निपट अकेली हो गई
पति की छिटकाई
पिता के घर की आशा से
निकाल देती है अपना पूरा जीवन
लेकिन
पीहर की छिटकाई
अपने सुसराल
फिर से बहुत मुश्किल से पहुंचती है

समूची सृष्टि
आज देखेगी
वह अद्भुत अनुष्ठान
इस यज्ञ का
हवि मैं
इस यज्ञ की
अर्ध्य मैं
इस यज्ञ का
मंत्र मैं
मैं ही
अब यहां होता हूं
मैं ही हूं उद्गातता
मैं
करूंगी
अपना ही आह्वान
स्वयं ही बांचूंगी
स्वयं को

पहाड़ों से निकली
नदियां
कभी लौट कर
पहाड़ों की तरफ नहीं आती
समूची सृष्टि को
तृप्त करती
बे अपने स्वरूप में
मिल जाती हैं फिर से
ऐसे ही पूरी होती है
यह सृजन-यात्रा
फिर मैंने
वापस

पहाड़ों पर चढ़ने की
जिद क्यों की।

अनुवाद : नीरज दइया