सत्य की जीत / भाग - 11 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
युधिष्ठिर ने तब स्वयं सहर्ष
दिये उत्तरीय वस्त्र उतार।
शेष अनुजों ने भी हो विवश
किया निज अग्रज के अनुसार॥
देख कर यह, भविष्य की सोच,
विदुर थे दुखी, विकर्ण उदास।
लग रहा था उनको यह स्पष्ट,
कि कौरव-कुल का निकट विनाश॥
उधर था अट्टहास कर रहा
दुःशासन खड़ा सभा के बीच।
और पाण्डव पाँचों थे मौन,
बँधे थे रेख सत्य की खींच॥
कौरवों का यह छल-बल देख
द्रौपदी खड़ी रह गयी स्तब्ध!
कर रहा था अन्तर विद्रोह
किन्तु थी मर्यादा में बद्ध॥
दृष्टि डाली उसने कृप, द्रोण,
भीष्म, धृतराष्ट्र, विदुर पर एक।
न बोली शब्द एक भी, सिर्फ
रही थी धर्मज्ञों को देख॥
दुःशासन बोला बढ़कर, ”रहा
नहीं अब है विचार का समय।
उतारो तुम भी अपने वस्त्र
रहो बसदासी बन कर अभय॥
किया था जो तुमने वह प्रश्न,
मिल गया उसका उत्तर तुम्हें।
यही पंचों की अन्तिम राय,
न अब आगे कहना कुछ उन्हें॥“
द्रौपदी फिर भी कुछ बोली न,
बढे़ तब दुःशासन के हाथ।
देख यह गरजी वह सिंहिनी,
”न छूना पापी, मेरा गात॥
न उतरेगा तन से यह वस्त्र,
भले ही देह चली यह जाय।
सहन मैं कर सकती हूँ नहीं,
हो रहा है जो यह अन्याय॥
कपट से, छल से जो कुछ हुआ
आज इस द्यूत-सभा में काम।
साथ उसके बरबस मिल जोड़
रहे हो व्यर्थ धर्म का नाम॥
नहीं है यह पंचों की राय
न्याय का तो है रे मुँह बन्द।
शक्ति पर आधारित यह एक
पक्ष का ही निर्णय है अन्ध॥
मानती हूँ मैं भी यह स्वयं
कि पंचों के मुँह में भगवान।
करें जो भी निर्णय वे, हम
मानें सब उसे पवित्र महान॥
किन्तु मैं देख रही हूँ आज,
शक्ति पर ही आधारित न्याय।
इसी से बढ़ता जाता सतत
विश्व में असन्तोष, अन्याय॥
इसलिए मुझे तुम्हारा नहीं
आज यह निर्णय है स्वीकार।
मानती हूँ मैं नहीं कि मुझे
युधिष्ठिर गये जुए में हार॥
किया था मैंने रे जो प्रश्न
मिला है उत्तर मुझे न ठीक।
गरजता भौतिक बल है कभी
मिटा सकता न सत्य की लीक॥
सत्य का पक्ष, धर्म का पक्ष,
न्याय का पक्ष लिये मैं साथ।
अरे वह कौन विश्व में शक्ति
उठा सकती जो मुझ पर हाथ॥“