भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सत्य की जीत / भाग - 12 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

”विश्व की बात द्रौपदी छोड़,
शक्ति इन हाथों की ही तोल।
खींचता हूँ मैं तेरा वस्त्र,
पीट मत न्याय-धर्म का ढोल॥“

तुरत तब दुःशासन ने हाथ
बढ़ाये पांचाली की ओर।
स्वयं पांचाली ने भी कहा
पकड़ अपनी साड़ी का छोर॥

”खींच दुःशासन, यदि हो शक्ति,
चुनौती मेरी तुझको आज।
देख ले युद्ध धर्म का औ’
अधर्म का सारा विश्व-समाज॥

तुम्हीं क्या, जग की कोई शक्ति
न कर सकती मेरा अपमान।
भले ही संकट मुझ पर आज
किन्तु अन्तर मेरा बलवान॥

सत्य पर सदा रही हूँ अटल,
रहूँगी, नहीं प्राण का मोह।
देख अन्याय, असत्य, अधर्म
किया है अन्तर ने विद्रोह॥

न्याय में रहा मुझे विश्वास,
सत्य में शक्ति अनन्त महान्।
मानती आयी हूँ मैं सतत
‘सत्य ही है ईश्वर, भगवान्॥“

इसलिए कहती हूँ रे कौन
शक्ति जो मुझ पर कर दे वार।
और यदि कर भी दे तो, हुई
कभी भी नहीं सत्य की हार॥

न समझो तुम एकाकी मुझे
सत्य के रूप अनेक, अनन्त।
साथ वे सब हैं मेरे आज
कर रहे हैं आलोकित पन्थ॥“