सत्य की जीत / भाग - 14 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
देख कर नारी की आन्तरिक
शक्ति का बाह्य प्रज्ज्वलित वेष।
कँप गयी दुःशासन की देह
रह गया वह अवाक् अनिमेष॥
पड़ गये ढीले उसके हाथ
झुकी आँखें, मुख हुआ मलीन।
वस्त्र ज्यों का त्यों ही रह गया
हो गया उसका पौरुष क्षीण॥
हाथ पर मस्तक अपना टेक
गया वह बैठ मान कर हार।
”अरे क्या हुआ दुःशासन, खींच,“
कहा दुर्योधन ने ललकार॥
”हाथ ही बढ़ता मेरा नहीं,
शक्ति से हुई परे यह बात।
न जाने मुझको क्यों लग रहा
कि जैसे है दिन में ही रात॥
कर रहा हूँ मैं बहुत प्रयत्न,
किन्तु हो रहा सभी कुछ व्यर्थ।
समझ मैं स्वयं पा रहा नहीं
अरे इस दुर्बलता का अर्थ॥
लग रहा है मुझको कुछ यों कि
खींचता हूँ मैं ज्यों ज्यों वस्त्र।
बढ़ रहा है त्यों त्यों वह और
थकित हूँ कर कर यत्न सहó॥
जल रहा मेरे सम्मुख आज
प्रलय का अंशुमान अविराम।
क्षीण मेरा साहस-बल-शौर्य,
शिथिल सब अंग, हुए बेकाम॥
दिख रहा है मुझको जैसे कि
चन्द्रमा उगल रहा विष-ज्वाल।
और काले केशों में छिपा
हुआ फुफकार रहा है काल॥
आज नारी ने नर की शक्ति
उसी के हाथों में दी तोल।
आज नारी ने नर की आँख
उसी के हाथों से दी खोल॥“
देख कर ऐसा अदभुत दृश्य
और वह पांचाली का रूप।
स्वयं विस्मित थे औ’ भयभीत,
वहाँ बैठे थे जितने भूप॥
लगे निन्दा करने वे सभी
दुःशासन की, थे उस पर क्रुद्ध
देख दृढ़ता, सतीत्व की शक्ति
द्रौपदी की, वे थे सब मुग्ध॥
”कर रहा क्या यह व्यर्थ प्रलाप,
मन्त्र-वश-सा दुःशासन वीर?“
कहा दुर्योधन ने उठ गरज,
”खींच, क्यों नहीं खिंचेगा चीर?”