सत्य की जीत / भाग - 16 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
गूँजने लगे सभा में द्रुपद-
सुता के ये गम्भीर विचार।
हुई कोने कोने में व्याप्त
द्रौपदी की जय, जय-जयकार॥
सत्य पर देख, न्याय पर देख,
कौरवों का यह वज्राघात।
नृपति सब दिग्-दिगन्त के हुए
द्रौपदी, पाण्डवों के साथ॥
दुःशासन, दुर्योधन पर लगा
व्यक्त होने उन सब का रोष।
एक स्वर से सब ने यह कह
”द्रौपदी-पाण्डव हैं निर्दोष॥
वस्तुतः यह धोखे का जाल,
धर्म की नहीं, कपट की विजय।
रोकना होगा यह अन्याय
नहीं तो मच जायेगा प्रलय॥
हमें करना ही होगा पृथक-
पृथक् रे आज नीर औ’ क्षीर।
नहीं तो मिट जायेगी जन-
मानस से पंचों की तस्वीर॥
न बोले हैं जब तक धृतराष्ट्र,
अरे यह कैसी अद्भुत बात!
विश्व-मंगल के हित की ओर
बढ़ाने होंगे उनको हाथ॥“
भीष्म, कृप, द्रोण, विदुर भी देख
रहे थे धूमिल दूर भविष्य।
सामने उनके चित्रित स्पष्ट
युद्ध के थे विध्वंसक दृश्य॥
दृश्य ही नहीं दिखाई उन्हें
दे रहे थे भीषण परिणाम।
हुआ जो अब तक प्रगति-विकास
दिख रहा लगता उसे विराम॥