सत्य की जीत / भाग - 1 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
”ध्वंस-विध्वंस, प्रलय का दृश्य,
भयंक, भीषण हा-हाकार।
मचाने आयी हूँ रे आज,
खोल दे राजमहल का द्वार॥“
द्रौपदी का सुन गर्जन घोर,
हिल गयी महलों की दीवार।
कँपा प्रहरी, रह गया अवाक्
खुल गया राजमहल का द्वार॥
रह गयी सभा स्तब्ध औ’ मूक
सिंहिनी का ज्यों हुआ प्रवेश।
चित्रवत् चित्रित थे सब नृपति
देखकर नारी का वह वेष॥
”अरे ओ! दुःशासन निर्लज्ज!
देख तू नारी का भी क्रोध।
किसे कहते उसका अपमान
कराऊँगी मैं इसका बोध॥
समझ कर एकाकी, निःशंक
लिया मेरे केशों को खींच।
रक्त का घूँट पिये मैं मौन
आ गयी भरी सभा के बीच॥
इसलिए नहीं कि थी असहाय
एक अबला, रमणी का रूप।
किन्तु था नहीं राज-दरबार
देखने मेरा भैरव रूप॥
उचित यह भी समझी थी नीं
कि मैं ही कर दूँ तुझ पर वार।
जगत् को मुँह दिखलाने योग्य
न रहता खा नारी की मार॥“
सिंहिनी ने कर निडर दहाड़
कर दिया मौन सभा का भंग।
शब्द-बाणों से क्षत हो, लगा
फड़कने दुःशासन का अंग॥
सह सका भरी सभा के बीच
नहीं वह अपना यों अपमान।
देख नर पर नारी का वार
एकदम गरज उठा अभिमान॥
”द्रौपदी, बढ़ बढ़ कर मत बोल“
कहा उसने तत्क्षण तत्काल।
”पीट मत री नारी का ढोल,
उगल मत व्यर्थ अग्नि की बाल॥
कहाँ नारी ने ले तलवार
किया है पुरुषों से संग्राम?
जानती है वह केवल पुरुष-
भुजाओं में करना विश्राम॥
किसे कहते गर्जन गम्भीर?
किसे कहते विद्युत की तेग?
किसे कहते हिम-वर्षण घोर?
किसे कहते झंझा का वेग?
किसे कहते हैं उल्कापात?
किसे कहते भीषण भूकम्प?
किसे कहते प्रालेय-हिलोर?
किसे कहते हैं प्रलय-प्रकम्प?
जानती है कब इनके नाम,
एक कलिका-सी अति सुकुमार।
सहन तक कर सकती वह नहीं
पवन की हलकी-सी भी मार॥
तुरत मुरझा कर गिरती शीघ्र
धरणि पर, कहाँ सबल व्यक्तित्व?
कुचल देता पैरों से विश्व
वहीं होता समाप्त अस्तित्व॥
और अस्तित्व पृथक् ही कहाँ,
कहाँ उसका अपना व्यक्तित्व!
पुरुष की छाया, निर्भर सिर्फ
उसी पर है उसका सर्वस्व॥
वही नारी है तू भी एक,
और तुझको इतना अभिमान।
चरण की धूल, सृष्टि की भूल,
व्यर्थ मत गा नारी के गान॥“