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सत्य की जीत / भाग - 9 / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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”बढ़े क्या अरे, यहीं तक आज
सभ्यता के, संस्कृति के चरण?
कर रहा रे मानव ललकार
शास्त्र को छोड़, शस्त्र का वरण?

हुआ क्या व्यर्थ आज तक विगत
युगों का मानव का संघर्ष?
रुक गया आकर रे क्या यहीं
प्रगतिमय जीवन का उत्कर्ष?

शस्त्र, उस आदिम युग की शक्ति
पाशविकता का था जब राज्य।
बचाने हम अपना अस्तित्व
समझते होंगे इसे न त्याज्य।

स्वयं अपने अन्तर की शक्ति
नहीं मानव को थी तब ज्ञात।
चीर पशुता का तम, हो रहा
मनुजता का था प्रथम प्रभात॥

मिली मानव को उसकी देह
वही थी प्रथम प्रात की किरण।
विश्व में फैलाने आलोक
वहीं से बढ़े मनुज के चरण॥

देह में हृदय और मस्तिष्क
भावना के, चिन्तन के मूल।
मिले मानव को अपनी प्रगति-
धार के दो सुन्दरतम कूल॥

गया बढ़ता विकास का वेग
इन्हीं दो कूलों का कर स्पर्श।
इन्हीं के बल पर चलता गया
प्रकृति से मानव का संघर्ष॥

विजयिनी प्रथम प्रकृति थी, किन्तु
पुरुष ने मानी कभी न हार।
सतत् संघर्षों में हो लीन
चुनौती हँस कर की स्वीकार॥

पेट भरने का ही था प्रश्न
उस समय, एक यही था लक्ष्य।
यहीं तक सीमित था संघर्ष,
जीव था स्वयं जीव का भक्ष्य॥

न था मानव में पशु में भेद
अधिक; पशुता का ही था बोल।
पर इन्हीं संघर्षों के बीच
रही थी आँख मनुजता खोल॥

बढ़ा ज्यों ज्यों संघर्ष-स्वरूप,
सामने आये जो-जो प्रश्न।
किया मानव ने त्यों-त्यों उन्हें
सोच कर सुलझाने का यत्न॥

बहा जो अब तक प्रगति-प्रवाह
उसी चिन्तन का वह परिणाम।
शिलाएँ संघर्षों की तोड़
प्रवाहित हुआ वही अविराम॥

आज भी रुका न उसका वेग,
बहेगा कल भी बन्धन तोड़।
करेगा युग-पथ का निर्माण
यथावांछित गति में दे मोड़॥

शस्त्र उस चिन्तन की ही देन
शास्त्र उस चिन्तन के ही सार।
बढ़े अब तक जो मानव-चरण
बढ़े इनका ही ले आधार॥

शस्त्र सर्वस्व, शास्त्र सब व्यर्थ,
धारणा यह विनाश की मूल।
शास्त्र सर्वस्व, शस्त्र सब व्यर्थ,
अभी कहना यह भी है भूल॥

मानता हूँ मैं रे यह बात
अभी उस स्थिति में नहीं समाज।
टिक सके जब कि छोड़ कर शस्त्र,
शास्त्र के बल पर ही वह आज॥

इसी से कर न पा रहा, विवश,
मोह शस्त्रों का वह संवरण।
शस्त्र-बल पर रखने अस्तित्व
कर रहा है एकत्रीकरण॥

किन्तु अन्तर में यह भी प्रश्न
कि इससे होगा विश्व-विकास।
या कि उन्मत्त किसी क्षण बीच
जायगा हो सब जग का नाश॥

क्योंकि वह देख रहा है प्रलय-
घनों से भरा हुआ आकाश।
लग रहा है जैसे हो खड़ी
मृत्यु हर दरवाजे के पास॥

बचाने को अपना अस्तित्व
किया जिन शस्त्रों का निर्माण।
आज उनके ही कारण पड़े
विश्व के हैं संकट में प्राण॥

त्रस्त वह स्वयं और खो रहा
आज अपने पर ही विश्वास।
न जाने किस क्षण में हो जाय
एक विस्फोट, सृष्टि का नाश॥

हृदय कहता भीतर चुपचाप
शस्त्र के बल पर रखना शान्ति।
भले लगता ऊपर से ठीक
किन्तु है रे केवल यह भ्रान्ति॥

शस्त्र-बल पर आधारित शान्ति
क्षणिक होती, स्थायित्व-विहीन।
तनिक सी चिनगारी पा एक
आग लगते होती देरी न॥

विवश हो खड़ा देखता रह
जाता सामने दृश्य संसार।
गरजते ज्वालाओं के मेघ
बरसती हुई अग्नि की धार॥

नियन्त्रण रख पाता है नहीं
स्वयं निर्मित शस्त्रों पर मनुज।
गरजते शस्त्रों के ही साथ
गरजने लगता उसका दनुज॥

सृष्टि का होने में संहार
नहीं लगती है कुछ भी देर।
युगों की प्रगति, सभ्यता तुरत
राख का बन जाती है ढेर॥

बढ़ चुके होते जितने चरण
संस्कृति के आगे की ओर।
पुनः उतने ही पीछे शीघ्र
लौटते बर्बरता की ओर॥

एक फिर से होता आरम्भ
नये संघर्षों का अध्याय।
पहुँच कर आदिम युग में मनुज
ढूँढ़ता फिर से वही उपाय॥

घोर तिमिरावृत पथ पर पुनः
भटकने लगता वह असहाय।
नष्ट होता समष्टि का युगों-
युगों का निचन्तन-अध्यवसाय॥

मनुज बन जाता फिर से दनुज
पाशविकता का होता राज्य।
मनुजता के मिट जाते चिह्न
दनुजता ही बनती आराध्य॥

बात यह सच है, फिर भी अभी
विश्व की जो कुछ स्थिति है आज।
सुरक्षित रखने निज अस्तित्व
चाहिए शस्त्रों का भी साज॥

मनुजमें अभी शेष है दनुज,
गरज उठता जो हो उन्मत्त।
सामना करने उसका अभी
पास रखना ही होगा अस्त्र॥

अगर ऐसा न हुआ तो हो
जायेगा यहाँ मनुज का अन्त।
और यदि हुआ मनुज का अन्त
मनुजता का ही होगा अन्त॥

किन्तु यह बात तभी एक मान्य
न जब तक विकसित पूर्ण समष्टि।
छोड़ कर अन्तर-चेतन-शक्ति
बाह्य जड़-बल पर निर्भर सृष्टि॥

ज्ञात मानव को जब तक नहीं
स्वयं अन्तर की पूरी शक्ति।
तभी तक रहती उसकी बाह्य
साधनों के प्रति है अनुरक्ति॥

इसलिए जो कुछ निर्णय करो,
एकदम करो न लेकर शस्।
शक्तिशाली हैं इनसे अधिक
तुम्हारे पास हृदय के अस्त्र॥

उन्हीं से सुलझाओ सब प्रश्न,
जहाँ तक सम्भव हो, कर बात।
क्रोध से दूर, घृणा से दूर,
शांति -सहयोग-प्रेम के साथ॥

समस्याएँ ऐसी हैं कौन
कि जिनका हल न हमारे पास।
चाहिए निर्मल उर, मस्तिष्क
और मानवता में विश्वास॥

किया यदि शस्त्रों से ही मोह
न अपनाया विवेक का पन्थ।
मुझे लगता है, जो कुछ हुई
प्रगति अब तक, उसका रे अन्त॥

और जो प्रश्न किया है आज
द्रौपदी ने वह बड़ा गंभीर।
चुनौती है हम सब को एक
करें हम पृथक् नीर औ‘ क्षीर॥

पितामह भीष्मपिता, धृतराष्ट्र,
विदुर-से बुद्धिमान, कुरु-श्रेष्ठ।
द्रोण, कृप-से आचार्य महान्,
सभासद दिग्-दिगन्त के ज्येष्ठ॥

उपस्थित सभी यहाँ इस समय
द्रौपदी को उत्तर दें स्पष्ट।
सत्य से, न्याय-धर्म से युक्त
नहीं तो होगा बड़ा अनिष्ट॥

मौन हैं आज सभी क्यों? देख
रहा हूँ मैं कैसा यह दृश्य!
सत्य को छिपा रहे हम जान,
करेगा हमें क्षमा न भविष्य॥

किन्तु क्या कभी छिपा है सत्य,
गरजता वह रह कर भी मौन।
हिमालय-सी उसमें है शक्ति
दबा सकता है उसको कौन?

द्यूत-क्रीड़ा, मृगया औ’ विषय-
भोग में रति, मदिरा का पान।
नृपतियों में बतलाये गये
दुर्व्यसन हैं ये, शास्त्र-प्रमाण॥

लीन होता जब इनमें मनुज
सत्-असत् का खो देता ज्ञान।
उन क्षणों में होकर उन्मत्त
उसे रहता न किसी का ध्यान॥

अतः इन व्यसनों में आसक्त
नृपति जो कहते, करते कार्य।
लोक में उनका कुछ न महत्व
मानते हैं यह सब आचार्य॥

युधिष्ठिर ने भी जो कुछ किया,
किया जब द्यूत-व्यसन में लीन।
इसलिए है उसका क्या अर्थ?
स्वयं सोचें शास्त्रज्ञ, प्रवीण॥

दूसरे, पत्नी है द्रौपदी
सभी पाँचों की एक समान।
इसलिए, मात्र युधिष्ठिर हार
जायँ, यह कैसा न्याय-विधान?

और, फिर गये युधिष्ठिर प्रथम
जुए में जब अपने को हार।
दाँव पर और किसी को तब
रखने का क्या उनको अधिकार?

इसलिए नहीं मानता मैं कि
कौरवों ने ली कृष्णा जीत।
खूब सोचे समझे यह सभा,
हो न कुछ जाय धर्म-विपरीत॥

अगर हमसे हो गया अधर्म
अगर हमसे हो गयी अनीति।
धर्म में, न्याय-सत्य में रह
जायेगी किसकी यहाँ प्रतीति?“