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सदफ़ और गौहर / विमलेश शर्मा
Kavita Kosh से
चिलमन से झाँक रही थी
तुम्हारी स्मृति
ज्यों तारों की चूनर ओढ़े
संध्या-सुंदरी
नीरव आकाश से उतर
हौले से
वृक्षों को सहलाती है
चुप प्रसार
शिथिल देह
पर यह मन
इस स्याह प्रवाह में भी
कहाँ थमता था!
कजली याद थी कि
वो थी लौ दीये की
कुछ तो था वहाँ,
जो रात भर जलता था
वही स्याह रोज
स्यात्
आसमां में उतरता था!