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सदस्य:Vikas5219

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बड़ी देर तक हम उनसे नज़रें मिलाते रहे, क़ि वो अफ़साना कुछ तो बयां हो,

निगाहे उनकी कुछ कहती भी थी शायद, पर हम ही कुछ यू समझे,

यूँ ही होता तो ये अजब सी कशिश अधूरी सी बातें शायद ख़त्म ना होती,

मेरा ये अधूरापन सवालों के जवाब देता मैं फिर बेवजह मुस्कुरा कर कहता कि मैं आज फिर खुश हूँ,

खुश ही हूँ शायद अपने इस पन पर अपनी आरज़ू के इस बेरंग से पैबंद पर,

समेटकर आँखों में मेरी यह सारी डोर, मुड़ जाती हैं आज भी कुछ इच्छाएँ बेवजह मेरी और...