सदानीरा / गीता शर्मा बित्थारिया
जमती पिघलती उठती गिरती
चंचल वेगवती
अल्हड़ सी अपनी मस्ती में मस्त
राह की चट्टानों को कूदती फांदती
कभी मद्धम कलकल
तो कभी निनाद शोर करती है
धरती का आंगन खुशियों से हरा भरा करती है
पहाड़ी नदी
बिल्कुल नन्ही बच्ची सी
अनायास बढ़ा करती है
लहराती बलखाती
उफनती मचलती मतवाली
विश्वास से भरी
अस्तित्व को आकार देती
वर्जनाएं नकारती
सीमाएं लांघती
अपने विस्तार की
चुनौतियां स्वीकारती
दायरे तोड़ती
नये प्रतिमान गढ़ती
सपनों को अपनी बाहों में भरती
अपने साहस पर इतराती
बरसाती नदी
उत्पात बहुत करती है
एक नव तरुणी सी
प्रतिबंधित राह चुना करती है
फैलती सिकुड़ती समेटती सिमटती
नए दायित्वों का बांध बंधाती
तीखे नुकीले पत्थरों से
समन्वय बैठती
अपनी सीमाएं पहचानती
स्व अस्तित्व विसारती
समर्पित सौंपती
अपनी उर्वरा संभालती
संतति जन्मती पालती पोषती
समय की धार संग
मैदानी नदी सिर्फ
बहा करती है
किसी विवाहिता सी
बाढ़ से बचा करती है
सहेजती संभालती नियमों को बांधती
निजी नियति के साथ
पूर्व निर्धारित लक्ष्य साधती
रेत पत्थरों की गठरी बांधे
थकी मांदी सी
मंद कर अपनी गति
बस छू लेना चाहती है
अपना अंतिम साध्य
सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ
मुहाने पे खड़ी
खारे विलय को स्वीकारती
सागर के किनारे
किसी वृद्धा की मानिंद
अपने अतीत में झांकती है
नदी निसंदेह पाती है
सागर सा विस्तार
पर खो देती है
खुद की पहचान
इतनी लंबी यात्रा का पाती
खारा सा प्रतिसाद
नदी और नारी की
जीवन गाथा
एक ही सी तो है
जिसकी देह में अवगाहन
से सब पुण्य पवित्र
हुआ करते है
जिसके तट पर तीर्थ
बसा करते हैं
एक सी नियति लिए दोनों
बस औरों के ही पाप
धोया करती हैं
नदी और नारी जीवन
ये महज संयोग नहीं
सृष्टि की महायोजना है
मोक्ष शुभेक्षु मनु के लिए
ये दोनों ही तो
जिजीविषा से जीती
औरों के लिए समर्पित जीवन
नदी नारी जीवन से
पड़ावों में बहा करती है
और नारी नदी को बस
अपनी आंखों में रखा करती है।