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सदा-ए-दिल इबादत की तरह थी / मनचंदा बानी
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सदा-ए-दिल इबादत की तरह थी
नज़र-ए-शम्मा-शिकायत की तरह थी
बहुत कुछ कहने वाला चुप खड़ा था
फ़ज़ा उजली सी हैरत की तरह थी
कहा दिल ने के बढ़ के उस को छू लूँ
अदा ख़ुद ही इजाज़त की तरह थी
न आया वो मेरे हम-राह यूँ तो
मगर इक शय रिफ़ाक़त की तरह थी
मैं तेज़ ओ सुस्त बढ़ता जा रहा था
हवा हर्फ़-ए-हिदायत की तरह थी
न पूछ उस की नज़र में क्या थे मेयार
पसंद उस की रिआयत की तरह थी
मिला अब के वो इक चेहरा लगाए
मगर सब बात आदत की तरह थी
न लड़ता मैं के थी छोटी सी इक बात
मगर ऐसी के तोहमत की तरह थी
कोई शय थी बनी जो हुस्न-ए-इज़हार
मेरे दिल में अज़ीयत की तरह थी