Last modified on 10 अप्रैल 2014, at 08:18

सदा धूप में साया बनकर चली है / देवी नांगरानी

सदा धूप में साया बनकर चली है
उसे जैसे मुझसे मुहब्बत बड़ी है

जरा सोच लो दोष देने के पहले
क्या इक हाथ से कोई ताली बजी है

कभी गर्व से ऊँचा सर है किसी का
कभी शर्म से कोई गर्दन झुकी है

वो दुश्मन है या दोस्त जानूँ मैं कैसे
ये उलझन-भरी इम्तहाँ की घड़ी है

वो आधा अधूरा है आदम न जिसकी
कभी आरज़ू कोई पूरी हुई है

रही बंध के मैं इस तरह मामता में
कोई गाय खूंटे से जैसी बँधी है

रहे कैसे पुख़्ता वो दीवार ‘देवी’
जहाँ ईंट से ईंट निस दिन लड़ी है.