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सदियों की गठरी सर पर ले जाती है / बशीर बद्र

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सदियों की गठरी सर पर ले जाती है
दुनिया बच्ची बन कर वापस आती है

मैं दुनिया की हद से बाहर रहता हूँ
घर मेरा छोटा है लेकिन ज़ाती है

दुनिया भर के शहरों का कल्चर यकसाँ
आबादी, तन्हाई बनती जाती है

मैं शीशे के घर में पत्थर की मछली
दरिया की ख़ुशबू, मुझमें क्यों आती है

पत्थर बदला, पानी बदला, बदला क्या
इन्साँ तो ज्ज़बाती था, जज़्बाती है

काग़ज की कश्ती, जुगनू झिलमिल-झिलमिल
शोहरत क्या है, इक नदिया बरसाती है

(जुलाई, १९९८)