भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सदियों की गठरी सर पर ले जाती है / बशीर बद्र
Kavita Kosh से
सदियों की गठरी सर पर ले जाती है
दुनिया बच्ची बन कर वापस आती है
मैं दुनिया की हद से बाहर रहता हूँ
घर मेरा छोटा है लेकिन ज़ाती है
दुनिया भर के शहरों का कल्चर यकसाँ
आबादी, तन्हाई बनती जाती है
मैं शीशे के घर में पत्थर की मछली
दरिया की ख़ुशबू, मुझमें क्यों आती है
पत्थर बदला, पानी बदला, बदला क्या
इन्साँ तो ज्ज़बाती था, जज़्बाती है
काग़ज की कश्ती, जुगनू झिलमिल-झिलमिल
शोहरत क्या है, इक नदिया बरसाती है
(जुलाई, १९९८)