भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सदियों की पीड़ा लिए चाँद / राजर्षि अरुण
Kavita Kosh से
आधा बूढ़ा चाँद
पसरकर झाँकता है छत पर से
सदियों की पीड़ा लिए
समय की झील समझ
मुझमें अपना प्रतिबिम्ब ।
चाँद उदास है
विश्व की करोड़ों थकी आँखें समाई हैं लगता है
इतिहास के काले अक्षर
सफ़ेद होना चाहते हैं
चाँद के सहारे
सहयोग देना चाहते हैं वे
उदासी को अर्थ देना चाहते हैं वे ।
वैसे तो चाँद भी जानता है
जिसकी रोशनी का बल है उसमें
वही इतिहास का सच्चा साक्षी है
पर इतिहास जानता है
जिस रोशनी का सौन्दर्य फैला है जगत में
उसे चाँद ही चाहिए स्वरूप देने को ।
आज अपने स्वरूप-परिवर्तन के क्रम में
चाँद उदास क्यों है, बूढ़ा क्यों है
क्यों उभर आई है पीड़ा सदियों की उसके बदन पर
कि खोज रहा है अर्थ अपने प्रतिबिम्ब का मुझमें !