धरा-सी विशाल कोख
नदियों, महासागरों से ज्यादा दूध
और प्रेम फैला हुआ
पाताल से आकाश तक
ब्रह्माण्ड से भी ज्यादा ममता
फिर भी औरतें रोती हैं
पोंछती हैं दूसरों के आँसू
कितने झीने हैं दुख
शायद हवा से भी ज्यादा
साँस लेने भर से ही जाते हैं हिल
करने लगते हैं घाव
रिसने लगता है आँसुओं-सा सफेद लहू
बदलता रहता है सागरों में
और महासागर, आँसुओं में
बढ़ गया है जल का तल
सदियों से रो रही हैं औरतें
कहाँ से कम होगा सागर का खारापन।