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सद्भाव दया करुणा ममता का जन जन मन में हो प्रवेश। / संदीप ‘सरस’

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सद्भाव दया करुणा ममता का जन जन मन में हो प्रवेश।
मानवता चूमे उच्च शिखर, अन्तस् में शुचिता हो विशेष।

अनुभूति गहनतम हो मन की, अभिव्यक्ति प्रखरतम हो जाए।
भावों का अंतर्द्वंद मिटे, संवाद मुखरतम हो जाए।

माँ सरस्वती ऐसा वर दें
अविराम अर्चना कर पाऊँ।।
लेखन में ऐसी शक्ति भरें
साहित्य साधना कर पाऊँ।1।


हर शब्द शब्द अनुप्राणित हो भावों से भी अनुबंधित हो।
संवादशिल्प हो सधा हुआ शास्त्रीय भाव सम्बंधित हो।

जीवन्त बिम्ब के मानक हों,भाषा हो प्रांजल निर्विकार।
सम्मोहन से हम मुक्त रहें शोधन हो मन का बार बार।

आलोकित तन मन जीवन हो,
संदीप्त चेतना कर पाऊँ।।
लेखन में ऐसी शक्ति भरो,
साहित्य साधना कर पाऊँ।2।

सम्प्रेषणीयता हो समर्थ, संशय का भाव बहिष्कृत हो।
अप्रतिम हो स्वत्व सौष्ठव भी,चारणता वृत्ति अस्वीकृत हो।।

मानस के कोरे पृष्ठों पर नव सृजन सदा शब्दांकित हो।
जीवन में शुभ संघर्षों का श्रृंगार सदा नामांकित हो।।

अमरत्व लेखनी को सौंपे,
संपुष्ट सर्जना कर पाऊँ।।
लेखन में ऐसी शक्ति भरो,
साहित्य साधना कर पाऊँ।3।