भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सन्तरा / जीवनानंद दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देह छोड़ एक दिन चला ही जब जाऊँगा ;
आऊँगा लौटकर नहीं क्या मैं पृथ्वी पर ?
आऊँ तो आऊँ मैं
किसी एक जाड़े की रात में,
प्राणों के लिए विकल परिचित एक
रोगी के बिछौने के पास ही —
रखा हुआ टेबल पर अधखाया ठण्डा
एक करुण सन्तरा बनकर !