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सन्ताप / राकेश रेणु
Kavita Kosh से
हंसते-हंसते वह चीख़ने लगी
फिर चुप हो गई ।
उसकी इठलाती कई-कई मुद्राएँ क़ैद हैं मोबाइल में
अब एक अदम्य दुख से अकड़ा जा रहा उसका तन
वह ठोक रही धरती का सीना अपनी हथेलियों से
न फटती है वो न कोई धार फूटती है ।
उसकी चीख़ में शामिल है
सूनी माँग की पीड़ा
उस आदमी के जाने का दुख
बैल की तरह जुतने के बाद भी
जो बचा ना पाया अपने खेत ।
उसकी चीख़ में शामिल
अबोध लड़की का दुख
हमारे समय की तमाम लड़कियों, औरतों की चीख़
रौंद डाले गए जिनकी इच्छाओं
और सम्भावनाओं के इन्द्रधनुष ।
उनकी चीख़ में शामिल
मर्दाना अभिमान का दुख
धर्म और जात का दुख
प्रेम के तिरोहन का दुख ।
उसकी चीख़ में शामिल
इस अकाल-काल का दुख ।