सन्त कबीर के प्रति / लाखन सिंह भदौरिया
ओ यती जतन से तुम ही ओढ़ सके अपनी,
निर्दोष ज़िन्दगी की अनमैली चादर को;
यह सिर्फ तुम्हारे मुख से ही घोषणा सुनी-
लो ज्यों की त्यों घर चले, चदरिया हम घर को।
अटपटे बोल में घोल गये, ऐसे रहस्य,
विद्वानों के बूते लगते हैं अर्थ नहीं;
तुम कैसे अनपढ़ थे, समझाकर चले गये-
हम उलट बासियाँ समझ सके सामर्थ्य नहीं।
तुम ढायी ‘आखर’ प्रेम पढ़े थे बस केवल,
फिर भी रुतियों का सत्य तुम्हारी वाणी में;
तुम ‘कागद’ देखी बात नहीं बोले तपसी-
है आँखें देखा सत्य गिरा कल्याणी में।
तुम लिए लुकाटी घर से, बाहर निकल पड़े,
देते जग को आवाज उठकर हाथ चले;
कविरा तो खड़ा बजार, तमासा देख रहा-
जो भी घर बारे अपना, मेरे साथ चले।
पर तुम सा फक्कड़, अक्खड़ कोई नहीं मिला,
जो आगे बढ़कर ऐसा शाहनशाह बनें,
चिन्ता की चादर फेंक चाह का माह त्याग-
मनुवँ इकतारे पर गा, वे परवाह बनें।
........तुम कितनी पीर सँजोये थे कबीर,
........दहरी पर पीड़ा की बाँह मिली;
वैधव्य जननि का दे न सका वात्सल्य तुम्हें-
अपमानों के आँचल की तुम को छाँह मिली।
तुम ओय तो द्वारे शहनाई बजी नहीं,
तुम रोये तो ममता ने नहीं दुलार दिया;
धरती की मजबूरी ने तुम्हें सम्भाला था-
माता की मजबूरी ने तुम्ळें न प्यार दिया।
माँ की ममता अँसुवा ढुलका कर छोड़ गयी,
तुमको निर्जन में अपनी लाज बचाने को;
हिचकियाँ तुम्हारी सुनकर दीन जुलाहे का-
वात्सल्य उमड़ ही आया, तुम्हें उठाने को।
तुम ममता से त्यागे, समता की गोद गये,
संकीर्ण मतों की चिर प्राचीर ढहाने को;
जीवन-पट तुमने बुना सत्य के करघे पर-
सुलझाया तुमने उलझे ताने-बाने को।