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सन्ध्या-चित्र-5 / विजयदेव नारायण साही

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फिर इसी एकान्त सूने कगार पर
खड़े होकर
तुम्हें मैंने पुकारा ।

दूर पच्छिम क्षितिज पर
हरी-लालिम शान्ति में लिपटा हुआ
तकता हुआ सूरज।

चिन्तित व्योम के नीचे
मोड़ लेती, बाढ़ की
पेंग भरती घाघरा ।

फरहरे वाले शिवालय के बग़ल में
झुकी पीपल डाल
आचमन करती नदी का ।

कहाँ हो?
तुम कहाँ हो?