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सन्यासी का गीत / मंजुला सक्सेना

Kavita Kosh से
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जागो स्वर ! उस गीत के जो जन्मा
दूर कहीं,सांसारिक मल जिसे छू न सके कभी,
गिरी कंदराओं में,सघन वनों की छायाओं में ,
व्याप्त गहन शान्ति को ,विषय वासना,यश, ऐश्वर्य
कर न सकें लेश भी भंग ; उमड़े निर्मल निर्झर जहां
आनंद का जो जन्मे सत्य -ज्ञान से .
गाओ ऊंचे स्वर वही ,सन्यासी निर्भीक ,गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

तोड़ फेंको बेड़ियाँ !बंधन जो बांधे तुम्हे
चाहे स्वर्णिम कनक के ,या हों भद्दे धातु के ,
प्रेम-घृणा ;शुभ –अशुभ और अनेकों द्वन्द
जानो बंदी बंदी है ,चाहे चुम्बित या हो पीड़ित ,नहीं कभी वह मुक्त ,
क्यूंकि बेडी सोने की भी ,नहीं बध कमज़ोर ,
तोड़ो फिर उनको सदा, सन्यासी निर्भीक गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

अन्धकार को दो विदा,मृगतृष्णा का राज्य
क्षणिक चमक दे कर जो भरे विषाद ..विषाद ...
जीवन की यह तृषा है ,अविरत ऐसी प्यास ,जो घसीटती
जीव को जन्म-मरण ;फिर मरण-जन्म के घात .
जो अपने को जीत ले, उसके वश संसार ,जानो यह ..
और न फंसो, सन्यासी निर्भीक, गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

'जो बोया वह काटना 'कहते है और 'कारण वश है
कार्य ' शुभ का शुभ ;अशुभ का अशुभ ;नहीं कोई
कर सकता अतिक्रमण नियम का इस ,किन्तु देह धारी सारे
हैं निश्चित ही बद्ध, पूर्ण सत्य पर, परे है
नाम रूप से आत्म ,सदा मुक्त ,बंधन रहित
जानो तुम तो हो वही, सन्यासी निर्भीक, गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

नहीं जानते सत्य वे जो देखे स्वप्न निरीह
माने 'स्व 'को तात,माँ ,संतति ,वामा, मित्र.
लिंग रहित है आत्मा !कौन तात ?कौन संतान ?
आत्मा ही सर्वत्र है ,नहीं और कुछ शेष ;
और वही तो हो तुम्ही,सन्यासी निर्भीक गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

मात्र एक ही तत्व है -मुक्त -जिज्ञासु -आत्म !
नाम नहीं ; न रूप है, न कोई पहचान ,
उसका स्वप्न प्रकृति है ,सृष्टि स्वप्न समान
साक्षी सबका आत्मा उससे प्रकृति अभिन्न ,
जानो तुम तो हो वही ,सन्यासी निर्भीक गाओ ओह्म तत्सत ओह्म!

कहाँ खोजते हो भला ?मुक्ति ,मित्र यह विश्व
दे सकता तुम को नहीं ,ग्रन्थ और मंदिर में
खोज तुम्हारी व्यर्थ ;हाथ तुम्हारे ही सदा
मुक्ति की है डोर ,छोडो रोना और फिर
त्यागो सारे मोह, सन्यासी निर्भीक गाओ, ओह्म तत्सत ओह्म !

कहो - शांति हो हर तरफ ! डरे न मुझ से कोई ,
जितने परितः प्राणी हैं ..वे जो ऊपर उड़ रहे
या रेंगे जो जीव, मैं ही तो सब में रमा ..
मोह भरे जीवन सभी ,यहाँ - वहां के त्यागो
स्वर्ग सभी, पृथ्वी ,नरक, आशाएं और त्रास
तोड़ो सारे पाश ये, सन्यासी निर्भीक, गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

मत सोचो- आगे देह साथ रहे या न
भोग इसे पूरा करना , कर्म बढाते आयु ;
चाहे फूल माला मिले या घोर अपमान
देह को ,प्रतिक्रिया से शून्य हो, दोष प्रशंसा है नहीं
जब प्रशंसक -प्रशंसित और दोषी- दोषित एक. .
यह जानो, हो शांत, सन्यासी निर्भीक, गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

सत्य प्रकट न हो जहाँ, है मल ,यश , लालच
का कतिशय अस्तिव, नहीं पुरुष जो नारी को माने
अपनी भोग्या पासकता है पूर्णता .
न वह जो संग्रह करे सामग्री न वह , जो क्रोधी है जा सके माया से पार
इसी लिये त्यागो इन्हें सन्यासी निर्भीक गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

मत अपना घर को कहो, किस घर के तुम मित्र ?
अम्बर की छत है तुम्हे, घास तुम्हारी खाट और खाने को ?
जो दे समय !पका -अधपका, ना गुनो..
न भोजन, न पेय ही छू सकते वह तेज
जो जागृत है आत्म में, बहती सरिता की तरह
तुम भी बहते जाओ ..सन्यासी निर्भीक, गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

सत्य जानते कोई ही ,शेष करेंगे द्वेष ..
व्यंग बाण जो साधते तुम पर तेजस्वी! ,ना दो कोई ध्यान .
रहो अग्रसर ,मुक्त ,भ्रमण करो, दो सहयोग
जीते जो अज्ञान वश , माया से आक्रान्त ,बिना विचारे
कष्ट -भय;या खोजे ही आनंद, जाओ
इन दोनों के पार, ..सन्यासी निर्भीक, गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !

ऐसे ही जीते रहो जब तक कर्म हों नाश ..
मुक्त करो आत्म को, जन्म की हो न आस .
न 'मैं 'न 'तू' न प्रभु ,न ही मानव मान ,मैं तो
सब कुछ हो चूका, मैं तो हूँ आनंद
जानो तुम तो हो वही, सन्यासी निर्भीक, गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !


स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित मूल अंग्रेज़ी रचना
Song Of The Sanyasin

Wake up the note! the song that had its birth
Far off, where worldly taint could never reach,
In mountain caves and glades of forest deep,
Whose calm no sigh for lust or wealth or fame
Could ever dare to break; where rolled the stream
Of knowledge, truth, and bliss that follows both.
Sing high that note, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Strike off thy fetters! Bonds that bind thee down,
Of shining gold, or darker, baser ore;
Love, hate—good, bad—and all the dual throng,
Know, slave is slave, caressed or whipped, not free;
For fetters, though of gold, are not less strong to bind;
Then off with them, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Let darkness go; the will-o’-the-wisp that leads
With blinking light to pile more gloom on gloom.
This thirst for life, for ever quench; it drags
From birth to death, and death to birth, the soul.
He conquers all who conquers self. Know this
And never yield, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

"Who sows must reap," they say, "and cause must bring
The sure effect; good, good; bad, bad; and none
Escape the law. But whoso wears a form
Must wear the chain." Too true; but far beyond
Both name and form is Atman, ever free.
Know thou art That, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om! "

They know not truth who dream such vacant dreams
As father, mother, children, wife, and friend.
The sexless Self! whose father He? whose child?
Whose friend, whose foe is He who is but One?
The Self is all in all, none else exists;
And thou art That, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

There is but One—The Free—The Knower—Self!
Without a name, without a form or stain.
In Him is Maya dreaming all this dream.
The witness, He appears as nature, soul.
Know thou art That, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Where seekest thou? That freedom, friend, this world
Nor that can give. In books and temples vain
Thy search. Thine only is the hand that holds
The rope that drags thee on. Then cease lament,
Let go thy hold, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Say, "Peace to all: From me no danger be
To aught that lives. In those that dwell on high.
In those that lowly creep, I am the Self in all!
All life both here and there, do I renounce,
All heavens and earths and hells, all hopes and fears."
Thus cut thy bonds, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Heed then no more how body lives or goes,
Its task is done. Let Karma float it down;
Let one put garlands on, another kick
This frame; say naught. No praise or blame can be
Where praiser praised, and blamer blamed are one.
Thus be thou calm, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Truth never comes where lust and fame and greed
Of gain reside. No man who thinks of woman
As his wife can ever perfect be;
Nor he who owns the least of things, nor he
Whom anger chains, can ever pass thro’ Maya’s gates.
So, give these up, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Have thou no home. What home can hold thee, friend?
The sky thy roof, the grass thy bed; and food
What chance may bring, well cooked or ill, judge not.
No food or drink can taint that noble Self
Which knows Itself. Like rolling river free
Thou ever be, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Few only know the truth. The rest will hate
And laugh at thee, great one; but pay no heed.
Go thou, the free, from place to place, and help
Them out of darkness, Maya’s veil. Without
The fear of pain or search for pleasure, go
Beyond them both, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"

Thus, day by day, till Karma’s powers spent
Release the soul for ever. No more is birth,
Nor I, nor thou, nor God, nor man. The "I"
Has All become, the All is "I" and Bliss.
Know thou art That, Sannyasin bold! Say—
"Om Tat Sat, Om!"